बच्चों के खिलाफ किए गए कुछ अपराधों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का केंद्र को किया नोटिस जारी
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को किशोर न्याय अधिनियम, 2015 में हालिया संशोधन को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र से जवाब मांगा, जिसके तहत बच्चों के खिलाफ कुछ श्रेणियों के अपराधों को गैर-संज्ञेय बनाया गया है।
न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हेमा कोहली की पीठ ने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। शीर्ष अदालत दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग द्वारा किशोर न्याय (देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 में किए गए संशोधन को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जो बच्चों के खिलाफ किए गए कुछ अपराधों को गैर-संज्ञेय के रूप में वर्गीकृत करता है।
याचिका में संशोधित अधिनियम की धारा 26 को चुनौती दी गई है जो तीन साल और उससे अधिक की अवधि के कारावास के साथ दंडनीय अपराधों को गैर-संज्ञेय के रूप में वर्गीकृत करता है। संशोधित कानून के अनुसार, गंभीर अपराधों में वे शामिल होंगे जिनके लिए अधिकतम सजा सात साल से अधिक कारावास है। संज्ञेय अपराध अपराधों की एक श्रेणी है जिसमें पुलिस किसी व्यक्ति को बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है, जबकि असंज्ञेय अपराध वे हैं जिनमें वह केवल अदालत से वारंट के साथ गिरफ्तारी को अंजाम दे सकती है। याचिका में कहा गया है कि संशोधन के परिणामस्वरूप पुलिस को किशोर अपराधियों की जांच और गिरफ्तारी करने की शक्ति से वंचित कर दिया गया है।
मानसिक स्वास्थ्य संस्थान में कैदियों को जंजीरों में जकड़े जाने पर याचिका मध्य प्रदेश के रतलाम जिले में एक मानसिक स्वास्थ्य संस्थान में कैदियों को जंजीरों में जकड़े जाने का आरोप लगाने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को केंद्र और अन्य से जवाब मांगा। न्यायमूर्ति एस ए नज़ीर और न्यायमूर्ति वी रामसुब्रमण्यम की पीठ ने स्वास्थ्य मंत्रालय, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, मध्य प्रदेश सरकार और अन्य को नोटिस जारी कर जवाब मांगा। शीर्ष अदालत अधिवक्ता गौरव कुमार बंसल द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें रतलाम जिले में हुसैन टेकरी दरगाह के पास मानसिक स्वास्थ्य सुविधा में कैदियों को छुड़ाने का निर्देश देने की मांग की गई थी।
याचिका में कहा गया है कि मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 2017 की धारा 95 के तहत मानसिक बीमारी वाले लोगों को जंजीर में बांधना प्रतिबंधित है। शीर्ष अदालत ने 2019 में कहा था कि मानसिक रूप से बीमार लोगों की जंजीर की अनुमति नहीं दी जा सकती है, इसे अत्याचारी और अमानवीय कहा जाता है।
ड्रग माफिया नेटवर्क के खतरे पर केंद्र को नोटिस सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को देश में चल रहे ड्रग माफिया नेटवर्क के खतरे का आरोप लगाते हुए एक पत्र का संज्ञान लेने के बाद केंद्र से जवाब मांगा। मुख्य न्यायाधीश उदय उमेश ललित की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि तत्कालीन सीजेआई एन वी रमना को एक पत्र लिखा गया था, जिन्होंने पिछले साल 17 नवंबर को निर्देश दिया था कि इसे एक स्वत: संज्ञान मामले में बदला जाए, जिसका शीर्षक है: द मेनेस ऑफ ड्रग माफिया नेटवर्क ऑपरेटिंग इन द कंट्री।
सीजेआई, न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की पीठ ने वकील शोएब आलम को सहायता के लिए एक न्याय मित्र नियुक्त किया और उन्हें अपनी पसंद के एक एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड (एओआर) की सहायता लेने की स्वतंत्रता दी। 17 नवंबर, 2021 को मुख्य न्यायाधीश के समक्ष रखे गए कार्यालय नोट को मुख्य न्यायाधीश के निर्देशों के तहत एक रिट याचिका में बदल दिया गया।
न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी और न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार की पीठ ने याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार और अन्य को नोटिस जारी किया। चेन्नई निवासी अर्जुन मुथुवेल की ओर से दायर इस याचिका में कहा गया है कि दोनों ही कानून किराये की कोख और सहायक प्रजनन प्रौद्योगिकी के विनियमन के अनिवार्य लक्ष्य को पूरी तरह हासिल करने के लिहाज से नाकाफी हैं। अधिवक्ता मोहिनी प्रिया की ओर से दाखिल इस याचिका में कहा गया कि सरोगेसी कानून किराये की कोख के कारोबार पर पूरी तरह पाबंदी लगाता है जो ना तो वांछनीय है और ना ही प्रभावी हो सकता है। याचिका में कहा गया है कि किराये की कोख के कारोबार पर पूर्ण पाबंदी से कालाबाजारी का उदय होगा और अधिक शोषण होगा।
याचिका में विवाहित महिलाओं के अलावा 35 साल से ऊपर की अन्य महिलाओं के अधिकारों को मान्यता देने का निर्देश देने की मांग की गई है ताकि मातृ सुख के लिए वह सहायक प्रजनन प्रौद्योगिकी के साधन के रूप में किराये की कोख हासिल कर सकें।